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त्वं सूरो॑ ह॒रितो॑ रामयो॒ नॄन्भर॑च्च॒क्रमेत॑शो॒ नायमि॑न्द्र। प्रास्य॑ पा॒रं न॑व॒तिं ना॒व्या॑ना॒मपि॑ क॒र्तम॑वर्त॒योऽय॑ज्यून् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ sūro harito rāmayo nṝn bharac cakram etaśo nāyam indra | prāsya pāraṁ navatiṁ nāvyānām api kartam avartayo yajyūn ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। सूरः॑। ह॒रितः॑। र॒म॒यः॒। नॄन्। भर॑त्। च॒क्रम्। एत॑शः। न। अ॒यम्। इ॒न्द्र॒। प्र॒ऽअस्य॑। पा॒रम्। न॒व॒तिम्। ना॒व्या॑नाम्। अपि॑। क॒र्तम्। अ॒व॒र्त्त॒यः॒। अय॑ज्यून् ॥ १.१२१.१३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:121» मन्त्र:13 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:26» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:18» मन्त्र:13


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) परमैश्वर्य के देनेवाले सभाध्यक्ष ! (त्वम्) आप (अयम्) यह (सूरः) सूर्य्यलोक जैसे (हरितः) किरणों को वा जैसे (एतशः) उत्तम घोड़ा (चक्रम्) जिससे रथ ढुरकता है, उस पहिये को यथायोग्य काम में लगाता है (न) वैसे (अयज्यून्) विषयों में न सङ्ग करने और (नॄन्) प्रजाजनों को धर्म की प्राप्ति करानेहारे मनुष्यों को (भरत्) पुष्टि और पालना करो तथा (नाव्यानाम्) नौकाओं से पार करने योग्य जो (नवतिम्) जल में चलने के लिये नब्बे रथ हैं, उनको (पारम्) समुद्र के पार (प्रास्य) उत्तमता से पहुँचावो। तथा उन उक्त परुषार्थी पुरुषों को (अपि) भी (कर्त्तम्) कूँआ खुदाने और कर्म करने को (अवर्त्तय) प्रवृत्त कराओ और आप यहाँ हम लोगों को सदा (रमयः) आनन्द से रमाओ ॥ १३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में लुप्तोपमा और श्लेषालङ्कार हैं। जैसे सूर्य्य सबको अपने-अपने कामों में लगाता है, वैसे उत्तम शास्त्र जाननेवाले विद्वान् जन मूर्खजनों को शास्त्र और शारीर कर्म में प्रवृत्त करा सब सुखों को सिद्ध करावें ॥ १३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे इन्द्र त्वमयं सूरो हरित इवैतशश्चक्रं नायज्यून् नॄन् भरत्। नाव्यानां नवतिं नवतिसंख्याकानि जलगमनार्थानि यानानि पारं प्रास्यैतान् पुरुषार्थिनोऽपि कर्त्तं खनितुं कर्मकर्त्तुं चावर्त्तयस्त्वमत्रास्मान् सदा रमयः ॥ १३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) राज्यपालनाधिकृतः (सूरः) सवितेव (हरितः) रश्मीन्। हरित इति रश्मिना०। निघं० १। ६। (रामयः) आनन्देन क्रीडय। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (नॄन्) प्रजाधर्मनायकान् (भरत्) भरेः (चक्रम्) क्रामति रथो येन तत् (एतशः) साधुरश्वः। एतश इत्यश्वना०। निघं० १। १४। (न) इव (अयम्) (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रद (प्रास्य) प्रकृष्टतया प्रापय (पारम्) (नवतिम्) (नाव्यानाम्) नौभिस्तार्य्याणाम् (अपि) (कर्त्तम्) कूपम्। कर्त्तमिति कूपना०। निघं० ३। २३। (अवर्त्तयः) प्रवर्त्तय (अयज्यून्) असङ्गतिकर्तॄन् ॥ १३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र लुप्तोपमाश्लेषालङ्कारौ। यथा सूर्यः सर्वान् स्वे स्वे कर्मणि प्रेरयति तथाप्ता विद्वांसोऽविदुषः शास्त्रशारीरकर्मणि प्रवर्त्य सर्वाणि सुखानि संसाधयन्तु ॥ १३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात लुप्तोपमालंकार व श्लेषालंकार आहेत. जसा सूर्य सर्वांना आपापल्या कामात लावतो. तसे उत्तम शास्त्र जाणणाऱ्या विद्वानांनी मूर्खांना शास्त्र व शारीरिककर्मात प्रवृत्त करून सर्व सुख प्राप्त करावे. ॥ १३ ॥